कहीं हवा में निकल जातें हैं,
ये शब्द क्या कुछ नहीं कर जाते हैं।
कानो से ज़हन तक और ज़हन से
शरीर मैं उतर जाते हैं,
ये शब्द क्या कुछ नहीं कर जाते हैं।
एक जुबां से दूसरी जुबां तक़
चंद लम्हों का सफर तय कर जाते हैं ,
ये शब्द क्या कुछ नहीं कर जाते हैं।
सोच की उपज और फिर सोच से ही परे,
कुछ अनोखा सा एहसास करा जाते हैं ,
ये शब्द क्या कुछ नहीं कर जाते हैं।
खेलो तो खिलौना, दिल पर लो,
तो आदमी को खिलौना बना जाते हैं,
ये शब्द क्या कुछ नहीं कर जाते हैं।
कुछ का इजाज़त से आगाज़ होता है,
कुछ बिना इजाज़त के,नादानी से ही बिखर जाते हैं,
ये शब्द क्या कुछ नहीं कर जाते हैं।
खैर शब्दों को ठैराव उनको बाँधने जैसा है,
प्यार से पुचकारो तो काबू मैं भी आ जाते हैं,
ये प्यारे शब्द हैं जो न जाने क्या कुछ नहीं कर जाते हैं।